शेखर

अज्ञेय जी कहते हैं ‘मेरा सच्चा पाठक वही है, जो मेरा लिखा हुआ समझे और उसके अनुसार कर्म करे।’


शेखर को लगता, उसके शरीर में कोई परिवर्तन हो रहा है। उसे लगता, वह बीमार है; उसे लगता, उसमें बहुत शक्ति आ गयी है; और वह, अपनी दुम का पीछा करते हुए कुत्ते की तरह, अपने ही आसपास चक्कर काटकर रह जाता...

     अपने शरीर की माँग वह नहीं समझता, लेकिन उसे लगता, यह माँग कुछ अनुचित हैै, कुछ पापमय है। और वह चाहता कि किसी तरह उसे दबा डाले, कुचल डाले, धूल में ऐसा मिला डाले कि उसका पता भी न लगे, चाहे शरीर ही उसके साथ क्यों न नष्ट हो जाय...

     वह मन उस पर से हटाना चाहता। यह तो वह जानता नहीं था कि किस तरह से शरीर से मन हटाए, लेकिन कविता में रुचि थी, और इसलिए उसे आशा थी कि वह उसमें अपने को भुला सकेगा। वह हर समय, हर प्रकार की कविता पढ़ने लगा। उसने संस्कृत-कवि पढ़े, उसने उर्दू से अनुवाद पढ़े, उसने जो कवि उसकी पाठ्य-पुस्तकों में थे — Tennyson, Wordsworth, Shelley, Christina Rossetti, Scott — सब पूरे पढ़ डाले। फिर उसने वे कवि पढ़ने आरम्भ किये, जो उसकी पुस्तकों में नहीं थे, लेकिन जिनके नाम उसने पढ़े और सुने थे — Keats, Gabriel Rossetti, Swinburne, अनुवाद में Tasso और Dante तक... कुछ उसने समझा, अधिकांश नहीं समझा, लेकिन जहाँ नहीं समझा वहाँ मानो अपने को दबाने के लिए, अपने को दंड देने के लिए और भी निष्ठा से पढ़ा।

     लेकिन कुछ कविताएँ पढ़कर उसका शरीर तन उठता, उसकी बाँहें काँपने लगतीं और उसका सिर घूम उठता...

     एक दिन, एक कविता पढ़कर उसे लगा, उसके भीतर एकाएक बल का इतना विशाल स्रोत उमड़ आया है कि उसे रोमांच हो आया... वह विवश होकर बाहर निकला, कुछ न पाकर उसने कुल्हाड़ी उठायी, और रसोई के पीछे जाकर कितनी ही लकड़ियाँ काट डाली।

     कुछ कविताएँ ऐसी भी थीं, जिन्हें पढ़कर उन्हें न समझने पर भी उसे शान्ति मिलती थी, रोज़ेटी की ये पंक्तियाँ—

Like a vapour wan and mute,
Like a flame, so let it pass,
One low sigh across her lute,
One dull breath against her glass,
And to my sad soul alas? One salute,
Cold as when Death's foot shall pass.

     अब उसने गहन-से-गहन विषयों की पुस्तकें निकालकर पढ़नी शुरू कीं। सबसे पहले Darwin की विकासवाद-सम्बन्धी किताबों से आदिशंकराचार्य, स्वामी विवेकानन्द, रामकृष्ण परमहंस की जीवनियों, डॉक्टरी की किताबों, मानसिक रोग-सम्बन्धी साहित्य, शरीर-विज्ञान, प्राणायाम और यौगिक क्रियाओं और खाद्य-विज्ञान तक पुस्तक कोई हो, कैसी हो, ज़रूरी केवल यह था कि वह ऐसी हो कि पढ़ने में रुचि न हो, मन को ठोक-पीटकर पढ़ी जा सके...

और वह, अपने ही ऊपर, वे सारे प्रयोग करने लगा, जो उसे इन विभिन्न पुस्तकों में मिले...

     उसने अपनी दिनचर्या को बड़े कठिन नियन्त्रण में बाँधा। प्रातः पाँच बजे उठना, और ठंडे पानी से नहाकर तौलिये से बदन रगड़ना (जब कि वहाँ पर गर्मियों में भी कोई ठंडा पानी नहीं सहता था, और स्वयं शेखर को उसका बिलकुल अभ्यास नहीं था); साढ़े पाँच बजे खिड़की से बाहर कूदकर घूमने जाना (क्योंकि किवाड़ खोलने पर पिता जाग जाते और ठंडे पानी का स्नान तो अवश्य ही बन्द करा देते, जिस पर शेखर का खास जोर इसलिए है कि वह सबसे अप्रिय काम है उसकी दिनचर्या में...); और इसी प्रकार सारा-दिन नियम से बाहर कोई वस्तु नहीं खानी, किसी से बोलना नहीं, ताश नहीं खेलना (ऐसा ‘फिजूल’ कोई खेल नहीं खेलना), उस दिनचर्या में बदलाव किया जा सकता था तो बस इतना — कि जिस काम में बिलकुल मन नहीं लगता हो, उसे दो बार किया जाय!

अब वह रवीन्द्रनाथ टैगोर की गीत-अंजली (Song Offerings) पढ़ रहा था। इन कविताओं में उसे एक ऐसा रस मिलता, जो उसने कभी किसी वस्तु में नहीं पाया था — एक पद पढ़ते ही उसका सारा पिछला जीवन मानो मैल की तरह धुलकर उससे अलग हो जाता, और उसे अनुभव होता कि वह किसी देवता की पूजा के लिए मन से पवित्र होकर खड़ा है...

I shall ever try to keep my body pure, knowing that thy living touch is upon all my limbs...

     और कभी एक उल्लास उसके रक्त में नाचने लगता—

O the waves, the sky-devouring waves, glistening with light, dancing with life, the waves of eddying joy...

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